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Tuesday 5 December 2017

Neend - By Vijay Dinanath Chauhan

 नींद - By Vijay Dinanath Chauhan
ये सब्र इस शब में, जीने के सबब में, जाने कहाँ तक खींच ले जाएगी ?
मेरी नज़र में होगा सहर या ये नयनों में यूँ ही हीन रह जाएगी
कभी चमकेगा शोहरत का सितारा, दमकेगा सोहबत का गलियारा
या ये ग़ुरबत में यूँ ही ग़मगीन रह जाएगी 
जब कुंद होती है कैफ़ियत, तब रोती है अपनी तबीयत,
सी रोनी हालत में भला नींद कहाँ आएगी ??


अभी तो टुकड़ों को चुनना है, दुखड़ों को बुनना है फिर जब जिल्लत इसपर अपना जिल्द चढ़ाएगी

 तब ऐसे हाल में भी, ना चल पाने के चाल में भी चलना है 
ये काली घटा बिन बयार की छटा  मुझे क्या डराएगी ?
पहले नस-नस के नखरे को, नस्ल-नस्ल के चेहरे को पढ़ना है
फिर जो रंग में अपनी वजूद होगी संग मंजिल-ए-मक़सूद  होगी
तब जाक़े कहीं हक़ीकी समझ आएगी
जब भी ऐसा ख़याल उमड़ता है हतप्रभ ह्रदय में कोई शोला सा भड़कता है  
क्या पता ये शूल कब तलक जलाएगी ? 
ऐसी दहकती रातों में, बरसती बरसातों में,भला नींद कहाँ आएगी??


आप तो खुद बाग़ हैं बगियन में जिसे हर अखियन ने जतनों से सींचा है 

मैं वाहिद नाव लिये नदियन में कब पार लगे किसने देखा है ?
बिन माँझी के ये मझधार, उसके ऊपर उड़ने का मेरा ख़ुमार जाने किधर बहा ले जायेगी
ऐसी डोलती कश्ती -ए-डगर में, डगमगाती रह-ए-सफ़र में,
भला नींद कहाँ आएगी ??


आप तो ख़्वाब हैं शयन्न के, ख्वाहिश  हैं हर नयन्न के,जिसे शय-शय ने खूब देखा है

मैं तो अनाड़ी नज़र में भिखारी हुनर में, अबतक  असुओं  से भी किसी ने  नहीं सींचा है  
ये कड़कती आँखें क्या  कुछ कह पाएगी ?
है ना अपनी कोई मोटर-गाड़ी ना ही कोई शाही सवारी
जो है वो वफ़ा-ए- ख़ातिरदारी पर अब ये मेरी वफ़ा, वफ़ा का नया ढोंग रचाएगी
असुअन  की झरती ऐसी निरझर माला को, कण-कण में बिखरती ऐसी रुगण हाला को, 
कौन अपने गले से लगाएगी ? ऐसी गरजती सर्द में, कराहती दर्द में, भला नींद कहाँ आएगी ??

    
ये क्या कम है आपके पास अब न कोई ग़म है, सोने से पहले सो जाते हैं, 
नींद में खोई इन आँखों में खुश्कियत कहाँ से आएगी ?
यहाँ तो नींद में भी परछाई है, उजड़ा-उजड़ा हर फ़साना है, 
और हर फ़साने में उन्हीं का आशियाना है आशिक़ी की ऐसी आफ़त, 
बेकसी में भी चाहत की चाहत वो क्या समझ पाएगी
मुझे क्या लगता है परबत भी प्यासा हो सकता है, शरबत भी सादा हो सकता है  पर शक्कर शोख़ी में भर,
कौन अपनी अदाओं से नहलाएगी नाहक नाम जपने की ऐसी हालत में, भला नींद कहाँ आएगी ??


उम्मीद ना की थी – 2, गुमनाम जख्म की माला 

अपने ही हाथ  मुझको पहना जाएगी
अब ये  आँखें, आह्ती आहें,अपने ही अहसासों में कैसे समा पाएगी ?
कैसे रोकूँ अपने टूटते इरादों को,भूल  भी जाऊँ कैसे अपनों से किये वादों को
ये बातें क्या बिन वजह की बात रह जाएगी ऐसी बातें सोचकर,
 भला नींद कहाँ आएगी ,नींद कहाँ आएगी ??
   

Beti - By Vijay Dinanath Chauhan

बेटी - By Vijay Dinanath Chauhan 


तेरी महफूज़ गर्भ-गोद में सोय रही,
अब चाहती हूँ नींद से जगना

बड़ी जतन से तु सेय रही 
अपने मगन में खेय रही,
अब चाहती हूँ परों से चलना । 
छूकर आँखों से उषा- किरण
नभ-तारे अब चाहती हूँ  देखना ।।
 
पाकर अमृत वक्ष से तेरी
मैं कुमकुम बैठी गुमशुम
अब चाहती हूँ बाहों में खिलना । 
लटकाकर बस्ता पीठ पे
मैं भी नौसिखिये की तरह
अब चाहती हूँ गुरुकुल में पढना  ।।

जानती हूँ पसंद नहीं मैं  पापा की
उन्हें तो चाहिए लाल – लँगोट में ललना ।  
तानें  देंगे पापा और उनकी ये दुनिया
पर सबसे लड़कर ,जिद में अड़कर
मुझको जरुर तुम जनना  ।।

माना वश न होगा तेरा संग्दिलों पर माँ,
मेरी माँ ! पर अपने दिल की जरुर तुम सुनना  ।
देकर जनम  धरा पर मुझको धन्य कर देना
बेटी हूँ सोच अपने करम को कभी न तुम कोसना ।।

हमेशा गर्व से ऊँचा रहेगा मान तेरा माँ,
मेरी माँ ! बस मुझपर कोई जुलम न करना ।
कभी न होने दूँगी दुखी तुझे माँ ,
मेरी माँ ! बस बराबर नाजों से पालना  ।।

जग जाने धन परायी मैं तू करेगी विदा
एकदिन अपने हाथों से  पर,
बनी रहूँगी इन्ही हाथों का कंगना  ।
होकर तुमसे दूर दुनिया का दस्तूर
मुझे जब पड़ेगा निभाना फिर भी,
तेरी एक बुलाहट पे चली आऊँगी तेरे अंगना  ।।

ग़र जो तेरा बेटा कभी कह दे  माँ ,
मुझे तुमसे अब अलग  है रहना ।
ये सुन  बिलकुल भी न तुम घबराना
वह तो बेटा है उसका तो लाजिमी था यह सब कहना,
काश उसे समझा पाती माँ – बाप  है तुम्हारा सबसे कीमती  गहना ।।

पर फिक्र मतकर माँ  मैं  तेरी बेटी हूँ
मुझे तो बहू – बेटी  दोनों का है फ़र्ज़ निभाना ।
और अपने कर्मों की ज्योत से इस जग को जगमगाकर है जाना ।।
                      


                                                             

Ek Ladki - By Vijay Dinanath Chauhan

एक लड़की - By Vijay Dinanath Chauhan 
    जाने कब आएगी ? छक-छक करती फूलों की छड़ी,
    धक-धक करती मेरे दिल की घड़ी,
    जब निकल अपने घर से वो बस जाएगी  मेरी नज़र में ।
    
    क्या पता जब पड़ेगी नज़रें उनपे पहली दफ़ा,
    शायद ये नादानी उन्हें कर न दे खफ़ा पर,
    होगी हुस्न में  उसके वो जादू जो होती है सागर की लहर में ।।
    
    उसका मुखड़ा होगा कोई चाँद का टुकड़ा,
    उसकी आँखें जैसे अम्बर की फल्कें,
    उसके लड़कते लब से मानो कोई मधुरस छलके,
    ऐसी मद को मैंने मोहा मौसम के हर मन्जर में ।
    
    उसके गालों पे होगी ऐसी लाली जैसे दूध पे बनी हो छाली,
    उसकी आवाज़  होगी इतनी कोमल जैसे गाती हो कोई कोयल,
    ये हसरत, ये चाहत मैंने संजो रखा है अब तक के रह-ए-बसर में ।।

    उसके बालों में होगी ऐसी खुशबू, जैसे  मोरनी पे हो काले बादल का जादू,
    उसकी काया होगी इतनी चंचल जितनी बहती हो कल-कल गंगाजल,
    ऐसी कंद-कामिनी को मैंने ढूंढा हर नदी- नहर में ।
    
     उसका रंग होगा खालिस सोना जो रौशन करेगी मेरे दिल का कोना-कोना,
    चमक में होगी चन्द्रमुखी, फूलों में सूर्यमुखी,
    ऐसी वर्णों की देवी को मैंने खोजा हर डाली के गुलर में ।।
    
    जो चाहे सजा  दे -2 पर ये गुल सज जाये मेरी यादों के गुलशन में,
    अजी काँटें भी फूल बन जायेगे उनके पैरों के धूल जब उड़ आयेंगे मेरी कँटीली आँगन में,
    ऐसी अमृत-औषध को हरपल चाहां इस जंगल रूपी जीवन के हर  जहर में ।   
    
    आखिर कब पुकारेगी वो बाँह पसारे इस खुली गगन में,
    लगता है ये आह रह जाएगी अपने ही मन में,
    अब तो भेद भी मुश्किल हो गया है शब और सहर में,
    कहने को तो सूरज है सदियों से पर शायद, 
    शाम हो न जाये मंजिल से पहले चलते-चलते जीवन के सफ़र में ।।
                                                                                 
                    

  

Sirf Tum By - Vijay Dinanath Chauhan

सिर्फ़ तुम - By Vijay Dinanath Chauhan 
मेरे सोये बंद नयन में, सुबह की पहली किरण में तुम हो
भोर की लाली में, चाय की प्याली में, तुम हो 
चिड़ियों की चहक में, कोयल की फ़हक में, तुम हो
अब तो हर पल-हर छन तुम हो, सिर्फ तुम हो, तुम्हीं तुम हो ।।

फूलों में,कलियों में,सपनों की गलियों में, तुम हो
शहद के छत्ते में, पेड़ों के हर पत्ते में, तुम हो ।
बरबस जग नींद से सोचने लगा तुम्हें
अब तो हर शय में,चप्पे–चप्पे में,तुम हो, सिर्फ तुम हो,तुम्हीं तुम हो ।।

रोटी में-सब्जी में,चावल में-दाल में,जिंदगी के हर छोटे-बड़े सवाल में,तुम हो
कॉलेज के रस्ते में, किताबों के बस्ते में, तुम हो ।
सोता हूँ जागता हूँ, जिधर भी जाता हूँ, तुम्हें याद करता हूँ
अब तो यादों के हर गुलदस्तें में तुम हो, सिर्फ तुम हो, तुम्हीं  तुम हो ।।

खून के एक-एक कतरे में, मेरी सहूलियत मेरे सहारे में, तुम हो
यहाँ-वहां  न जाने कहाँ-कहाँ, जीवन के हर नज़ारे में तुम हो ।
शीत की शीतलता में,तितली की कोमलता में, तुम हो
छम-छम करती पानी में, छल-छल करती रवानी में, तुम हो
इस सूने शहर में, जब आप मिले थे नज़र में, तो शोहरत हमने भी पा ली थी
अब तो जहान-ए-रब जानता है कि मेरी इबादत की हर अरजी में तुम हो, सिर्फ तुम हो, तुम्हीं तुम हो, सिर्फ तुम हो ।।   
                    
                                                       

Waqt Poem by -Vijay Dinanath Chauhan

वक़्त -By Vijay Dinanath Chauhan

मेरे रोकने से रुका नहीं, सिर्फ कहने भर से बदला भी नहीं 
जो सोचा था आज करूँगा वो अपनी ही अनमनसकता से कल
पर टलता जा रहा है
ये वक़्त तो हर वक़्त रेत बनकर  फिसलता जा रहा है

देखते-देखते गुजर गया सुनहरा सावन, एक तरह से मानो छूट ही
गया ममता का आँगन, 
अब यह आँगन भी अपनों में बटता जा रहा है ये वक़्त तो रेत
बनकर फिसलता जा रहा है ।

कभी खेला करता था आँख मिचोली गाँव की गलियों में, आवाज़
मिलाया करता था कोयल की कूकती बोलियों में, अब तो बनावटी
शोर में सृष्टि  का सिरमौर भी  सिमटता जा रहा है ।
कितना भला था वो बचपन का दिन,न काम की चिंता न आराम
की फिक्र, मजे में कटा हर पल हर छीन, यह सब सोच मन
मेरा मुझसे ही जलता जा रहा है ये वक़्त तो रेत बनकर फिसलता जा रहा है।

बालिगपन का बोझ उठा बसने आया नए बसर में कैसे-कैसे लोग
है जहाँ के जो फरक करते है नज़र नज़र में
हर शय की तरह हमने भी सोचा  एक साथी  तो मिलेगी जरुर
जो खुद में होगी खुदा का नूर, यहाँ तो अमीरी के आगे इबादत
भी झुकता जा रहा है ये वक़्त तो रेत बनकर फिसलता जा रहा है ।

ये सच है साथ  नहीं आज समय के नज़ारे लेकिन पार पाऊँगा
उसी साहिल के सहारे  मेरा यही साहस, यही हौसला मुझमे उड़ान
भरता जा रहा है ।
कम नहीं सितम ज़माने में, जैसे युग बीत गया हो  एक आशियां
बनाने में, ईमारत की इबारत तो सजेगी जरुर इसी कैफ़ियत के
किनारे  मेरे हुजुर,कदम मेरा आज भी बढ़ता जा रहा है;ये वक़्त
तो रेत बनकर फिसलता जा रहा  है -2

Monday 9 October 2017

अल्पना - By Vijay Dinanath Chauhan

अल्पना - By Vijay Dinanath Chauhan
मेरी कल्पित कल्पनाओं की कल्पना,
सिसकती सांसों की जो संवेदना है
वो मेरी अल्पना है ।

गुमशुम थी जो नज़र में
वो कुमकुम आ गयी शहर में,
चेहरों का जो आईना है
वो मेरी अल्पना है ।


घुँघरू लगाके बालों में
पायल छनकाके चालों में,
कतराकर देखनेवाली जो कुदरती नगीना है
वो मेरी अल्पना है ।


लहरानेवाली अरमानों को
लह्कानेवाली  वाली परवानों को,
लहरों पे तैरती जो सफीना है
वो मेरी अल्पना है ।


धूप-धूप में छाया है
रूप-रूप में काया है,
देखकर ऐसी छांव-छटा
बादल भी लजाया है,
जिसके रंग-ढंग में 
अबमुझको रंगना है
वो मेरी अल्पना है |


शीश में सजाके चूड़ामणि शीशमहल सी
बस गयी उर में उर्वशी सी,
जिस नैन-नशीं की आँखों में
 अब मुझ को बसना है
वो मेरी अल्पना है |


उनके लबों की लाली, ख्वाबों की प्याली
खिलखिलाती कस्तूरी में है
मेरी हसरतों की बदहाली पहुँचकर भी दूरी में है,
जिनके खुशबू की खुसूसियत में
 अब मुझको बहकना है
वो मेरी अल्पना है |


हरशू हाथ बढ़ाते सब
सुनकर बातें हतप्रभ हो जाते अहले-अदब,
जिसका होकर
अब मुझको रहना है
वो मेरी अल्पना है |


है न कोई अरजी अपनी
मुझपे चलेगी हरदम मरजी उनकी,
दामन खुशियों से भरना है
बस इतना ही कहना है
वो मेरी अल्पना है |


मेरी हकीक़त में वो सपना है
मेरी वसीहत में वो गहना है,
अजनबी होकर भी जो अपना है
वो मेरी अल्पना है |


जिस नाम के लिए पीना है
उसी एहतराम के लिए जीना है,
गर जो ज़हमत जुटानी पड़ी जाने में
तो पहले मुझे मरना है
बस इतना ही कहना है वो मेरी अल्पना है ||