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Tuesday 5 December 2017

Waqt Poem by -Vijay Dinanath Chauhan

वक़्त -By Vijay Dinanath Chauhan

मेरे रोकने से रुका नहीं, सिर्फ कहने भर से बदला भी नहीं 
जो सोचा था आज करूँगा वो अपनी ही अनमनसकता से कल
पर टलता जा रहा है
ये वक़्त तो हर वक़्त रेत बनकर  फिसलता जा रहा है

देखते-देखते गुजर गया सुनहरा सावन, एक तरह से मानो छूट ही
गया ममता का आँगन, 
अब यह आँगन भी अपनों में बटता जा रहा है ये वक़्त तो रेत
बनकर फिसलता जा रहा है ।

कभी खेला करता था आँख मिचोली गाँव की गलियों में, आवाज़
मिलाया करता था कोयल की कूकती बोलियों में, अब तो बनावटी
शोर में सृष्टि  का सिरमौर भी  सिमटता जा रहा है ।
कितना भला था वो बचपन का दिन,न काम की चिंता न आराम
की फिक्र, मजे में कटा हर पल हर छीन, यह सब सोच मन
मेरा मुझसे ही जलता जा रहा है ये वक़्त तो रेत बनकर फिसलता जा रहा है।

बालिगपन का बोझ उठा बसने आया नए बसर में कैसे-कैसे लोग
है जहाँ के जो फरक करते है नज़र नज़र में
हर शय की तरह हमने भी सोचा  एक साथी  तो मिलेगी जरुर
जो खुद में होगी खुदा का नूर, यहाँ तो अमीरी के आगे इबादत
भी झुकता जा रहा है ये वक़्त तो रेत बनकर फिसलता जा रहा है ।

ये सच है साथ  नहीं आज समय के नज़ारे लेकिन पार पाऊँगा
उसी साहिल के सहारे  मेरा यही साहस, यही हौसला मुझमे उड़ान
भरता जा रहा है ।
कम नहीं सितम ज़माने में, जैसे युग बीत गया हो  एक आशियां
बनाने में, ईमारत की इबारत तो सजेगी जरुर इसी कैफ़ियत के
किनारे  मेरे हुजुर,कदम मेरा आज भी बढ़ता जा रहा है;ये वक़्त
तो रेत बनकर फिसलता जा रहा  है -2

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